मा’बूद<ref>ईश्वर</ref>
बहुत हसीन हैं तेरी अक़ीदतों <ref>आस्थाओं</ref>के गुलाब
हसीनतर<ref>सुंदरतम</ref>है मगर हर गुले-ख़याल <ref>कल्पना पुष्प</ref>तिरा
हर एक दर्द के रिश्ते में मुंसलिक<ref>पिरोए हुए ,जुड़े हुए</ref>दोनों
तुझे अज़ीज़<ref>प्रिय</ref>मिरा फ़न<ref>कला</ref>, मुझे जमाल<ref>सौंदर्य</ref>तिरा
मगर तुझे नहीं मालूम क़ुर्बतों<ref>सामीप्य</ref>के अलम<ref>दु:ख</ref>
तिरी निगाह मुझे फ़ासलों से चाहती है
तुझे ख़बर नहीं शायद कि ख़िल्वतों<ref>एकांतों</ref>में मिरी
लहू उगलती हुई ज़िन्दगी कराहती है
तुझे ख़बर नहीं शायद कि हम वहाँ हैं जहाँ
ये फ़न<ref>कला</ref>नहीं है अज़ीयत<ref>यातना</ref>है ज़िंदगी भर की
यहाँ गुलू-ए-जुनूँ <ref>उन्माद के गले</ref>पर कमंद <ref>फंदा</ref>पड़ती है
यहाँ क़लम की ज़बाँ पर है नोंक ख़ंज़र की
हम उस क़बील-ए-वहशी<ref>असभ्यों के क़बीले</ref>के देवता हैं कि जो
पुजारियों की अक़ीदत से फूल जाते हैं
और एक रात के मा’बूद <ref>ईश्वर</ref>सुब्ह होते ही
वफ़ा-परस्त<ref>प्रेम-प्रतिज्ञा को पूजने वाले</ref>सलीबों पे झूल जाते हैं