मेरे भीतर की मिटटी सूखी थी,
बरसों की सूखी,
अब्र का कोई भी टुकड़ा,
उस पर नहीं बरसा था,
बिवाइयाँ फट गयी थी,
एक दिन - यूँ ही कुरेदा तो,
कुछ ख़्वाब मिले,
अश्कों से उन्हें गीला किया,
लोई बना कर उनकी,
वक़्त के चाक पर धर दी,
उँगलियों से तजुर्बों की,
आड़े-तिरछे रूप दे डाले,
ख्वाबों को शक्लें दे दी,
नाम दे डाले।
सूखी मिट्टी कुरेदता रहा मैं,
जाने क्या-क्या जोड़ता रहा मैं।