ऊँची छत
नीचे झुके सत्तर सिर
तीस बाई तीस के कमरे में
शहतीरें अँग्रेज़ी ज़माने की
कुछ सालों में टूट गिरेंगीं
सालों लिखे खत
सरकारी अनुदानों की फाइलें बनेंगीं
जन्म लेते ही ये बच्चे
उन खातों में दर्ज हो गए
जिनमें इन जर्जर दीवारों जैसे
दरारों भरे सपने हैं
कोने में बैठी चार लड़कियाँ
बीच बीच हमारी ओर देख
लजाती हँस रही हैं
उनके सपनों को मैं अँधेरे में नहीं जाने दूँगा
यहाँ से निकलने की पक्की सड़कें मैं बना रहा हूँ
ऊबड़-खाबड़ ब्लैक बोर्ड पर
चाक घिसते शिक्षक सा
पागल हूँ मैं ऐसा ही समझ लो
मेरी कविता में इन बच्चों के हाथ झण्डे होंगे
आज भी जलती मशालें मैं उन्हें दूँगा
हाँ, खुला आसमान मैं उन्हें दूँगा.