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मुक्तक-39 / रंजना वर्मा

जो होता अपने अधीन वह ही होता स्वाधीन यहाँ
खिलते फूल तमन्नाओं के धरा गगन रंगीन यहाँ।
जग में है सम्मान उसी का परतंत्रता न जो जाने
मिलते गौरव और प्रतिष्ठा बजे उसी की बीन यहाँ।।

जो हैं पराधीन उन के अरमान कहाँ जी पाते हैं
जख्म बहुत मिलते जख्मों को किन्तु नहीं सी पाते हैं।
सोच सदा बौनी ही रहती करें गुलामी गैरों की
विष पीते जो पराधीनता का नित दुख ही पाते हैं।।

जीवन को सुख दुख का समरांगण कर दो
जो कुछ है प्रभुचरणों में अर्पण कर दो।
होना नहीं कभी भी है विचलित पथ से
सत्य मार्ग हो अपना बस यह प्रण कर दो।।

मिला जो ईश के दर से ग्रहण करिये झुका माथा
दिखाया पन्थ जो शुभ है वहीं गहिये झुका माथा।
नहीं आसान है लड़ना बहुत तकदीर से लेकिन
कभी भी कर्म करने से नहीं डरिये झुका माथा।।

ख़ुशी के लिये इक नन्ही मुस्कान जरूरी है
निज की निज बल से होनी पहचान जरूरी है।
क्षितिज छोर तक दूर दूर तक फैला है अम्बर
उड़ने को नभ में अब एक उड़ान जरूरी है।।