शहर के आतंकित होंठ
जब भी खुलते हैं
हवाओं में पसरता है भुतहा साया
तालियाँ पीटते है काले हाथ
और तुम्हारे आने का समाचार
स्याही-सा पुत जाता है मेरे चेहरे पर.
हर सुबह की रोशनी में
कुछ घोल देते हो तुम
वहशी हो जाती है दोपहर
कत्थई पड़ जाता है शाम का रंग
सुबह क सूरज छाप देता है
लाल सुर्ख़ियों भरा अख़बार
घर की दीवारें तोड़ने लगते हैं समाचार
सियाही मेरे चेहरे पर है
हाथों पर नहीं
अपने साफ़ हाथों से लिखूँगा
शहर का मुक्तिगीत.
(1983-84)
साभार: विपाशा- जुलाई-अगस्त-1986