राही रहे राह के, सिपाही रहे, साथी रहे
पूँजी के प्रपंच में नज़ारा रहे मुक्तिबोध।
जीते जी झुके नहीं, रोके गए रुके नहीं
मथते रहे निंदक, लिवारा रहे मुक्तिबोध।
गेय की रही न देह, कविता अज्ञेय हुई
टूटे तारसप्तक, इकतारा रहे मुक्तिबोध।
चारा रहे चोरों के, उचक्कों ने सहारे लिए
धाराधार दृष्टि, सर्वहारा रहे मुक्तिबोध।

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