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मुश्किलें / माधवी शर्मा गुलेरी

लिखने को बहुत कुछ था
लिखने बैठी तो कुछ नहीं

है मुश्किल
खटखटाते रहना
दरवाज़े उलझे हुए मन के
परत-दर-परत
बेधड़क

है मुश्किल
जवाब न मिलने पर
घुस जाना ज़बरन
निकालना ख़यालों की
दो-चार क़तरन
फिर चिपका देना
किसी सफ़्हे पर
साफ़गोई से

है मुश्किल
बेतरतीब, बेअदब लफ्ज़ों को
समझा-बुझाकर
सभ्य बनाना और
पहना देना ख़याली जामा
नफ़ासत के साथ

है मुश्किल
कर देना क़ाबिल
उस क़तरे को इतना
कि हर्फ़ों में सिमटकर भी
लाँघ जाए वो
वक़्त, मुल्क़ और
सारी सरहदों को

है मुश्किल लिखना
लेकिन
उससे भी मुश्किल है
लिखना ख़ुद को

मुश्किलें हज़ार हैं
कोशिशें पुरज़ोर ।