रामू नौकर है मेरा
बेटे का समवयस्क
गाँव से लाई थी
शहर में कहाँ मिलते हैं नौकर
परिश्रमी और ईमानदार
पहले तो तैयार नहीं हुए
माता-पिता उसके
पर थे तो भोले देहाती ही
मेरे शहरी दाँव ने बना दिया काम
-‘रहेगा गाँव खेलेगा गुल्ली –डंडा
बिगड़ जाएगा
रहा शहर तो पढ़-लिखकर
कुछ बन जाएगा ’
गरीबों की आँखों में एक सपना जागा
मेरे चमचमाते बच्चे को देखकर
शुरू में रहा सब ठीक-ठाक ही
मैंने दे दिए उसे बेटे के पुराने कपड़े-जूते
किताब-कांपियाँ
और खुश हुई अपनी उदारता पर
पर धीरे-धीरे खलने लगा मुझे
काम के रहते उसका पढ़ना
डांट दिया उस दिन से
इंतजार करता है काम के खत्म होने का
और न होते देख उदास हो जाता है,
उदास हो जाता है जब बेटा यूनिफ़ार्म में
सजकर बैठता है स्कूल बस में
बहुत उदास, जब बेटे को करती हूँ दुलार
खुश होता है जब बेटा नाचता है
अंग्रेजी धुन पर
तब वह ताल देता है
बर्तन माँजते या पोंछा लगाते
होता है खुश
जब सबक याद कर लेता है
बहुत खुश जब बेटे के लिए
बनाए स्पेशल डिश में से
एक-दो टुकड़े दे देती हूँ
[नजर लगने के डर से ]
और वह इसे प्यार समझता है
वह सोचता है –
यहाँ रहकर कुछ बन जाएगा
और मैं सोचती हूँ –
कुछ बन गया
तो क्या मेरा नौकर रह जाएगा?