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मेरी कविता / तरुण

न रहे, न रहे मेरी कविता
नन्ही फुलसुँही फुदकती-चिहुँकती
नीली$पीली$आसमानी चिड़िया-सी
छुईमुई,
छरहरी एक तन्वी नागरिका, टी.बी.-ग्रस्त,
नाजुक कलाई से बहुरंगी नायलनिया छत्री-सी उठाये;
तीज की पियरी-ढीली मलमल-छनी मृदु चाँदनी-सी
हँसी हँसती!

यों गतिमय हो मेरी कविता
पहाड़ी हवा की सी साँसें धौंकती-
मुर्गे की कलगी जैसे अपने लाल-सुदृढ़ फेफड़ों से;
पुष्ट अनार-से उभरे वक्षोज हों जिसके
गेहूँ की पकी बालियों के चित्रों से चित्रित-
तनी चोली में!

रहे मेरी कविता-
ग्राम-विहारिणी-सी
खेत में से जो जा रही हो, अलमस्त,
घास का गट्ठर लिये, हँसिया लिये;
और,
चिकनी हाँडी मट्ठे की सरस-सलोनी;
चौड़े-चौड़े नीले आकाश के नीचे, जाती-सी
चिड़ियों के शोर में!

रहे मेरी कविता
फागुन-चैत के भोर की अरुणाली में
चिकनी साँवली माटी वाले खेत से उपजते, सौंधे-सौंधे
लहलहाते मूली-पालक-सी,
जीवन-रसपूर्ण लाल सुडौल गोल-गोल पुष्ट-चमकीले
मुक्ताभ टमाटरों-सी;
ऐसी हो मेरी कविता-
मजबूत व खराद-चढ़ी हों जिसकी पिंडलियाँ,
पुष्ट बाजू और रग-पट्ठे!

धूप में किलकते-किलकते लाल-पीले गुलमुहरों-सी हंसे,
पसीने के मुक्ताकण से भाल सजाये;
आँधियों में पेड़ जैसी झूमती सी रहे;
लहराती-सी, घेर-घुमेरदार अपना छींट वाला
लाल ग्रामांचली घाघरा!

न रहे, न रहे मेरी कविता-
तेज लपटों पर चढ़ी कड़ाही में, मसालों में,
तली-छोंकी, फिर तली-छोंकी, सब्जी में
नष्ट सारे हो चुके हों जिसके विटैमिन?
रहे मेरी कविता चट्टानी, गुलमुहरी!
हरहराते पहाड़ी झरने-सी-
चौड़े, खुले, नीले आकाश के नीचे!