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मेरी वर्षगांठ / जनार्दन कालीचरण

साठ बार मिठाइयाँ बांटीं
और मिलती रहीं बधाइयाँ ।
बार-बार बजवाई उसने
मेहमानों से सत्तालियाँ
बालपन में कौतूहल के रथ पर
बैठकर वह आती थी ।
हर्ष से उपहारों के ढेर
पास मेरे छोड़ जाती थी ।।
यौवन में उमंगों के लड्डू
भर परात में लाती थी ।
आशा-आकांक्षा के तारे
मन-गगन में छोड़ जाती थी ।।
बुढ़ापे में पुराने सुदिन
सुबह-सा ताजा कर जाती है ।
पर मेरी यात्रा का एक वर्ष
हर बार कम कर जाती है ।।
गत बार आवाज़ दे गई
धीरे से मेरे कानों में ।
सब छोड़ देंगे तुझे अकेले
पड़ जाओगे मैदानों में ।।
धन-दौलत सींच कर रखते
पर चैन कभी नहीं पाते ।
स्वार्थ के पुतले हैं ये सारे
संसार के रिश्ते-नाते ।।
आने वाले फूँक देंगे तुझे
शुष्क शून्य की बयार में ।
मगर के आंसू बहाएँगे सब
अपने बौने प्यार में ।।
तोड़ दे सारे नातों को
कूद जा अनन्त के सागर में ।
अखण्ड आनन्द पाओगे
तैरकर उस असीम सागर में ।।