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मेरे पिता / नरेश अग्रवाल

लेकर गया था अस्थिय़ाँ मैं विसर्जित करने
लगा था, हमेशा सीने से ही जुड़े रहेंगे वे मेरे
लेकिन नहीं था यह वश में मेरे
और दृश्य था कितना अद्भुत वह
जब छोड़ा था सब कुछ मैंने तीन नदियों के संगम में
और लगा था, पहली बार अलग हुए वे मुझसे
और खाली नाव, सूनी आँखे
खाली हाथ लिए निकला था बाहर रेत पर
जैसे बारिश को गँवाकर सूने बादल
और इन बादलों में जरूर छिपे होंगे मेरे पिता
हमेशा हमारी रक्षा करते हुए।