आओ, यहाँ बैठो
यहाँ से भी तो देख सकती हो उड़ते हुए बादल
क्षितिज़ की आँखों में काली पुतली जैसे
उड़ते हुए पँछी
यहाँ से भी बालू पर चमकती हुई नदी
पतझर में नँगे होते पेड़
पैरों के पास से दूर तक फैली हुई हरियाली
सब कुछ देख सकती हो
आओ यहाँ
नीचे ज़मीन पर मेरे साथ बैठो
पहाड़ पर जाकर
क्या देखना चाहती हो ?
वहाँ अकेले में
मन उदास होगा
पेड़ बौने दिखेंगे
नदी आँसुओं से डबडबाई असहाय
खोई-खोई-सी लगेगी
बस, कुछ बड़े हो जाएँगे बादल
कुछ अधिक दूर तक फैल जाएगा क्षितिज
कुछ वायवी दिखेगी हरियाली
लेकिन क्या
तब भी
वहाँ बहुत-बहुत अकेला
नहीं लगेगा तुम्हें
मेरे बिना ?
(14 जनवरी 1986)