गेरू से बनाओगी तुम फिर
इस साल भी
घर की किसी दीवार पर ढेर-ढेर फूल
और लिखोगी मेरा नाम
चिन्ता करोगी
कि कहाँ तक जाएंगी शुभकामनाएँ
हज़ारों वर्गमीलों के जंगल में
कहाँ-कहाँ भटक रहा होऊंगा मैं
एक ख़ानाबदोश शब्द-सा गूँजता हुआ
शब्द-सा गूँजता हुआ
सारी पृथ्वी जिसका घर है
चिन्ता करोगी
कब तक तुम्हारे पास लौट पाऊंगा मैं
भाटे के जल-सा तुम्हारे बरामदे पर
मैं महसूस करता हूँ
तुलसी चबूतरे पर जलाए तुम्हारे दिये
अपनी आँखों में
जिनमें डालते हैं अनेक-अनेक शहर
अनेक-अनेक बार धूल
थामे-थामे सूरज का हाथ
थामे हुए धूप का हाथ
पशम की तरह मुलायम उजालों से भरा हुआ
मैं आऊंगा चोटों के निशान पहने कभी
(रचनाकाल : 1980)