आज मैं ईश्ववर से झगड़ आया।
सोने के सिंहासन पर सुखासन में पौढ़े थे देव,
और, धूप में नंगे पाँव चलने की अपनी तो टेब।
मैंने तो बस इतना ही कहा था कि-
आजकल सृष्टि का कार्य-कलाप ठीक नहीं चल रहा है माई-बाप!
चर्चा गरम है-
सत्ता और अमीरी की बड़ी तरफ़दारी कर रहे हैं आप।
इतनी-सी ही बात,
पर, त्यौरी चढ़ा कर बोले साहू-
डेढ़ पसली वाले अदने, तेरी यह औकात।
हमारी महत्ता पर तू यों करे आघात!
बस, बात कुछ बढ़ ही गई,
उबल पड़ा मैं, मेरी लाचारी,
कमजोर और गुस्सा भारी,
जैसे, मेरे मन-तन की, आत्मा की नसें चढ़ गईं!
‘बस नहीं चढ़ूँगा तुम्हारी सोने की सीढ़ियों पर साहू
सृष्टि के पालक, धारक, संहारक
आपका वैभव, आपका रुतबा,
आपको ही मुबारक!’- तपाक् से मेरे मुँह से कढ़ गई!
सोचा-बहुत रही ईश्वर की बपौती,
स्वीकार है अब हमें चुनौती,
विराट् रत्नगर्भा वसुन्धरा पर, बुद्धिसम्मत-
आदमी खोकर रहे अपनी पत!
मानव के गौरव का सवाल है, निपटारा हो न्यायसंगत!
1983