दूर दूर दूर...मैं वहाँ हूँ!
यह नहीं कि मैं भागता हूँ :
मैं सेतु हूँ-जो है और जो होगा दोनों को मिलाता हूँ-
मैं हूँ, मैं यहाँ हूँ, पर सेतु हूँ इसलिए
दूर दूर दूर...मैं वहाँ हूँ!
यह जो मिट्टी गोड़ता है, कोदई खाता है और गेहूँ खिलाता है
उस की मैं साधना हूँ।
यह जो मिट्टी फोड़ता है, मडिय़ा में रहता है और महलों को बनाता है
उसी की मैं आस्था हूँ।
यह जो कज्जल-पुता खानों में उतरता है
पर चमाचम विमानों को आकाश में उड़ाता है,
यह जो नंगे बदन, दम साध, पानी में उतरता है
और बाज़ार के लिए पानीदार मोती निकाल लाता है,
यह जो कलम घिसता है, चाकरी करता है पर सरकार को चलाता है
उसी की मैं व्यथा हूँ।
यह जो कचरा ढोता है,
यह झल्ली लिये फिरता है और बेघरा घूरे पर सोता है,
यह जो गदहे हाँकता है, यह तो तन्दूर झोंकता है,
यह जो कीचड़ उलीचती है,
यह जो मनियार सजाती है,
यह जो कन्धे पर चूडिय़ों की पोटली लिये गली-गली झाँकती है,
यह जो दूसरों का उतारन फींचती है,
यह जो रद्दी बटोरता है,
यह जो पापड़ बेलता है, बीड़ी लपेटता है, वर्क कूटता है,
धौंकनी फूँकता है, कलई गलाता है, रेढ़ी ठेलता है,
चौक लीपता है, बासन माँजता है, ईंटें उछालता है,
रूई धुनता है, गारा सानता है, खटिया बुनता है
मशक से सड़क सींचता है,
रिक्शा में अपना प्रतिरूप लादे खींचता है,
जो भी जहाँ भी पिसता है पर हारता नहीं, न मरता है-
पीडि़त श्रमरत मानव
अविजित दुर्जेय मानव
कमकर, श्रमकर, शिल्पी, स्रष्टा-
उस की मैं कथा हूँ।
दूर दूर दूर...मैं वहाँ हूँ-
यह नहीं कि मैं भागता हूँ :
मैं सेतु हूँ-जो है और जो होगा, दोनों को मिलाता हूँ-
पर सेतु हूँ इस लिए
दूर दूर दूर...मैं वहाँ हूँ।
किन्तु मैं वहाँ हूँ तो ऐसा नहीं है कि मैं यहाँ नहीं हूँ।
मैं दूर हूँ, जो है और जो होगा उस के बीच सेतु हूँ
तो ऐसा नहीं है कि जो है उसे मैं ने स्वीकार कर लिया है।
मैं आस्था हूँ तो मैं निरन्तर उठते रहने की शक्ति हूँ,
मैं व्यथा हूँ तो मैं मुक्ति का श्वास हूँ,
मैं गाथा हूँ तो मैं मानव का अलिखित इतिहास हूँ,
मैं साधना हूँ तो मैं प्रयत्न में कभी शिथिल न होने का निश्चय हूँ,
मैं संघर्ष हूँ जिसे विश्राम नहीं,
जो है मैं उसे बदलता हूँ,
जो मेरा कर्म है, उस में मुझे संशय का नाम नहीं
वह मेरा अपनी साँस-सा पहचाना है,
लेकिन घृणा-घृणा से मुझे काम नहीं
क्यों कि मैं ने डर नहीं जाना है।
मैं अभय हूँ,
मैं भक्ति हूँ,
मैं जय हूँ।
दूर दूर दूर...मैं सेतु हूँ,
किन्तु शून्य से शून्य तक का सतंरगी सेतु नहीं,
वह सेतु, जो मानव से मानव का हाथ मिलने से बनता है,
जो हृदय से हृदय को, श्रम की शिखा से श्रम की शिखा को,
कल्पना के पंख से कल्पना के पंख को,
विवेक की किरण से विवेक की किरण को,
अनुभव के स्तम्भ से अनुभव के स्तम्भ को मिलाता है
जो मानव को एक करता है,
समूह का अनुभव जिस की मेहराबें हैं
और जन-जीवन की अजस्र प्रवाहमयी नदी जिसके नीचे से बहती है
मुड़ती, बल खाती, नये मार्ग फोड़ती, नये कगारे तोड़ती,
चिर परिवर्तनशीला, सागर की ओर जाती, जाती, जाती...
मैं वहाँ हूँ-दूर, दूर, दूर!
दिल्ली (बस में), 20 सितम्बर, 1954