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मोर से / बालकृष्ण गर्ग

- ‘मोर, बोलते हो तुम क्या-क्या-
पैको-पैको, केहाँ-केहाँ?’

-‘मैं तो वर्षा का दीवाना,
सिर्फ पुकारूँ- मे-आ,मे –आ!’

- ‘पंख और कलगी अति सुंदर,
रंग-बिरंगे मिले कहाँ पर?’

- ‘मिला मुझे कुदरत का प्यार,
पाए उससे ये उपहार ‘।

- कैसी खुशी, नहीं जो थकते,
खोल पंख, तुम खूब थिरकते?’

- ‘वन औ’ उपवन की सुंदरता-
देख, नाचते का मन करता’।
[रचना: 28 जून 1998]