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मोल / महादेवी वर्मा

झिलमिल तारों की पलकों में
स्वप्निल मुस्कानों को ढाल,
मधुर वेदनाओं से भर के
मेघों के छायामय थाल;

रंग ड़ाले अपनी लाली में
गूँथ नये ओसों के हार,
विजन विपिन में आज बावली
बिखराती हो क्यों श्रृंगार?

फूलों के उच्छवास बिछाकर
फैला फैला स्वर्ण पराग,
विस्मॄति सी तुम मादकता सी
गाती हो मदिरा सा राग;

जीवन का मधु बेच रही हो
मतवाली आँखों में घोल
क्या लोगी? क्या कहा सजनि
’इसका दुखिया आँसू है मोल’!