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यात्रा/ प्रतिभा सक्सेना

पुकार आ रही है !
आसार बन रहे हैं एक नई यात्रा के !
आहट सुन कसक उठी भीतर से ;
 हर यात्रा की पूर्व संध्या होता है ऐसा !
 सीमित आत्म से निकल
विराट् में प्रवेश करने का द्वार -
 यात्रा !


तैयार हो लूँ !
जहाँ ,जिस तरह रही ,
घेरे से बाहर निकल आऊँ
सारा ताम-झाम छोड़ !

बिदा ,प्रिय स्मृतियों ,आशाओं-इच्छाओं ,संबंधों ,
स्वीकार लो प्रणाम मेरा ,
कि आगे निकल सकूँ,
निरी एकाकी ,निरुद्विग्न और निरपेक्ष !

कि नये दृष्य ,नये अनुभव,
मुक्त चेतना में समा सकें ,
कि एकदम अनाम अनुभूतियाँ
अजाने संवेदन ग्रहण करने को
मन के स्तर खुल जायें !
रह जाऊँ एकदम
खाली स्लेट,
कि होनेवाले अंकन सुस्पष्ट रहें !