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यात्रा (छह) / शरद बिलौरे

रेल में चढ़ते हुए
अपने सामान के बारे में हम
उतने ही सतर्क होते हैं
जितने कि
बस में चढ़ते हुए
खिड़की के पास वाली सीट के बारे में।
जितने कि
विदा के समय
हाथ हिलाने के बारे में।
जितने कि हम
यात्रा समाप्त करने पर
सतर्क होते हैं।
सपनों के उस संसार के बारे में
हम कभी सतर्क नहीं होते
जहाँ हमें
भावी डर के बारे में सतर्क करते हुए
ले जाती हैं
रेलें
बसें
और मित्रताएँ।