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युक्ति / प्रेमरंजन अनिमेष

बिछड़ते समय
बदल लिए थे हाथ मैंने

अब रहूँ कहीं भी
मेरा हाथ तुम्हारे पास
स्पर्श करता तुम्हें
सोच में
सम्भालता चेहरा तुम्हारा
नींद में थपकाता
पोंछता आँसू
देता धूप में ओट...

और उससे
कर सकता हूँ कुछ भी ग़लत कैसे

सँवारता हूँ दुनिया को मैं
तुम्हारे हाथ से।