Last modified on 7 नवम्बर 2009, at 17:41

यूक्लिप्टस / अवतार एनगिल

मेरी खिड़की के बाहर
युक्लिप्टस की
तीसरे पहर की परछाईं
पूर्व की तरफ बढ़ रही है

नदी की लकीर की अनन्त आवाज़
रोज़ की तरह है

कभी कोई पत्ता हिलता है
बिना किये आवाज़
कभी कोई पक्षी चहचहाता है
बिना मचाए शोर
गुज़रता है कोई राही
उदास-चुप

जले हुए घर-सा लाक्षा-वर्णी पहाड़
नदी की लकीर के सिरहाने बैठा है


अरे ओ यूक्लिप्टिस !
मेरी प्रतीक्षा करना
हम सहयात्री हैं।