Last modified on 8 मई 2011, at 22:29

ये घंटियाँ / नरेश अग्रवाल

ऐ मंदिर की घंटियाँ!
क्यों नहीं बजतीं तुम अपने आप से
ये हाथ क्यों जगाते हैं, तुम्हें
लगता है इन्हें लगा दिया गया है
खुली हवा से दूर
और शायद अभी तक सोया हूँ मैं,
उनकी आवाज पहुँचती नहीं मुझ तक
कि मेरे हाथ अभी बहुत छोटे हैं ।