ये हैं नखलिस्तानी तो वो रेगिस्तानी,
खालिस मिला न मुझको कोई हिंदुस्तानी।
यह बयान मेरा सीधा सच्चा सपाट है,
अपने से अपना ही ये मनुवाँ उचाट है।
क्यों उद्विग्न फकीरे भीखम औ खुशवंता?
चुप्पी साध गई है क्यों मित्रो मरजानी?
मुल्क़ नहीं शायद कुछ मुल्क़ों का समूह है,
यह अतृप्त वासनाओं का महज ढूह है;
काल अनंत, धरा विपुला का धैर्य असीमित-
क्षेपक छोड़ें तब भी लम्बी रामकहानी।
निष्ठाएँ बीमार, आस्थाएँ अंधी हैं,
अपने अर्जित स्वर्ग-नर्क में सब बंदी हैं;
देशभक्ति की परिभाषाएँ अपने हित में-
भ्रष्ट बुद्धिजीवी करते बैठे मनमानी।
ये हैं नखलिस्तानी, तो वो रेगिस्तानी,
खालिस मिला न मुझको कोई हिंदुस्तानी।