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योग / शमशेर बहादुर सिंह

सूर्य मेरी पुतलियों में स्नान करता
केश-वन में झिलमला कर डूब जाता
स्वप्न-सा निस्तेज गतचेतन कुमार

कमल तल में खिले सर के,
शीर्षासन से।

जागरण की चेतना से मैं नहा उट्ठा।
हवा है मेरी असंख्य
दृष्टियाँ अनुक्षण परस्पर देखतीं खुल-मुँद,
असंख्य
चपल शीतल-दृग
पुलक पल लिए, अपरम्पार।

मैं कमल के नाल पर बैठा हुआ हूँ
एक एड़ी पर टिकाए मौन।
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चट-चटककर कमर बोली...(क्या?)-
"घूमती लचती दिशाओं में
मैं पताका-सी।"