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रचनाएगी / हरीश भादानी

जाने क्या-क्या कर जाएगी
भले अभी तो आंखों को यह
पसरी-पसरी लगे
मगर यह रेत, रेत है
एक समंदर उफनाएगी
जाने क्या-क्या.....
अभी भले ही हुई धुएं सी
लगते-लगते हवा
यहीं हां यहीं यहां से
वहां-वहां तक अगियाएगी
जाने क्या-क्या.....
जाने कब से बर्फ़ गिरे है
सील गई हैं तहें
मगर लकड़ी है लकड़ी
सूरज पी-पी चिटखाएगी
जाने क्या-क्या.....
बरसे बरसे कोई मौसम
बुझी-बुझी सी लगे
मगर जगरे में चिनगी
पड़ी राख उठ ओटाएगी
जाने क्या-क्या.....
ठुंठ हुए पेड़ों पर लटकें
ऊंधे गुमसुम सभी
मगर पतझर की झाडूं
झाड़ किनारे रख जाएगी
जाने क्या-क्या.....
माटी नहीं रही है ऊसर
झरी कहीं से बूंद
हुई है बीजवती यह
हरियल मन फिर रचनाएगी
जाने क्या-क्या कर जाएगी