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रतिया / बैद्यनाथ पाण्डेय ‘कोमल’

चुपके दूर छितिज से डुघुरल
आइल रे रतिया।
रुखवन के पतइन में विहगन के
अँखिया निदिआइल;
दिनवाँ के मनमोहक सुषमा
अब झट से मुरझाइल,
करिया ओढ़ बसन तन-मन
मुस्काइल रे रतिया।
करिया रूप भइल रुखवन के
करिया भइल गगनवाँ;
रूपवा अरूप भइल जग भर के
लखि उमसाइल मनवाँ;
दियरा देख मगन मन बन
इतराइल रे रतिया।
अँचरा से झरि-झरि के मोतिया
नील गगन में चमकल;
कीट-पतंगन के सुर मधुमय
घसिया में अब धमकल;
रजनीगंधा के मह-मह
अलसाइल रे रतिया।
हँसत-खेलत लडि़कन के अँखिया
पर निदिया रे उतरल;
दिनभर के अगनित रव चट से
नीरवता में बदलल;
पपिहा के पी-पी सुन-सुन
मधुआइल रे रतिया।
छान-छपर घर घसिया-पतई
सब सूना जस लागे;
बस पछिया के झरका झर-झर
झरकि-झरकि के जागे;
झुरमुट में झुरमुर मधुकय
लहराइल रे रतिया।
आइल सांझ मगर पतिया
परदेशी के ना अइले;
सजनी के अँखिया के पनिया से
असरा धुल गइले;
विरहिन के झुलसावत
ना सकुचाइल रे रतिया।
चुपके दूर छितिज से डुघुरल
आइल रे रतिया।