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रधिया / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

भावोॅ के बहली छै नदिया
चिन्ता में डूबली छै रधिया,
संग सजन के यादोॅ में
धड़कै छै ओकरोॅ छतिया।

पागल पिक गेलै प्रीतम रोॅ याद दिलाय केॅ
गेलै वसंत बौरेलोॅ मीट्ठोॅ स्वर में गाय केॅ
आबेॅ ऐलौ छै बरसात
स्नेह बूंद सें भरलोॅ छै रात,
मधु फूल सें महकी रहलोॅ छै
सजनी अवनि के बगिया।
आतुर हिय रधिया बोलै छै, कहिया ऐभोॅ हमरोॅ रसिया ?

रंगोॅ सें रंगलोॅ फागुन बितलै
हमरोॅ मन खाली-खाली रहलै,
आबेॅ नै कटतै रैन-चैन सें
उŸार पूछोॅ आबी हमरोॅ नैन सें।
मधुवन में भटकै छै मन हमरोॅ
आँखी के लोरोॅ सें भरलै गागर,
झूठ- मूठ सब देखलोॅ सपना
झूठेॅ लागै भरलोॅ ई सागर ।
मिलन आस हमरे ई छेकै, सागर के ई लोल लहरिया
भावोॅ के भरली नद्दी में
डूबली, प्रीतम खोजै छै रधिया।