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रसखान / परिचय

रसखान

जन्म

रसखान के जन्म के संबंध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है। अनेक विद्वानों ने इनका जन्म संवत् १६१५ ई. माना है और कुछ विद्वानों ने १६३० ई. माना है।

रसखान स्वयं बताते हैं कि गदर के कारण दिल्ली श्मशान बन चुकी थी, तब उसे छोड़कर वे ब्रज चले गये। ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर पता चलता है कि उपर्युक्त गदर सन् १६१३ ई. में हुआ था। उनकी बात से ऐसा प्रतीक होता है कि वह गदर के समय व्यस्क थे और उनका जन्म गदर के पहले ही हुआ होगा।

रसखान का जन्म संवत् १५९० ई. मानना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। भावानी शंकर याज्ञिक ने भी यही माना है। अनेक तथ्यों के आधार पर उन्होंने अपने इस मत की पुष्टि भी की है। ऐतिहासिक ग्रंथों के आधार पर भी यही तथ्य सामने आता है। यह मानना अधिक प्रभावशाली प्रतीत होता है कि रसखान का जन्म १५९० ई. में हुआ होगा।


जन्म स्थान

रसखान के जन्म स्थान के विषय में अनेक विद्वानों ने अनेक मत प्रस्तुत किए हैं। कई तो रसखान के जन्म स्थान पिहानी अथवा दिल्ली को बताते हैं, किंतु यह कहा जाता है कि दिपाली शब्द का प्रयोग उनके काव्य में केवल एक बार ही मिलता है। जैसा कि पहले लिखा गया कि रसखान ने गदर के कारण दिल्ली को श्मशान बताया है। उसके बाद की जिंदगी उसकी मथुरा में गुजरी। शिवसिंह सरोज तथा हिंदी साहित्य के प्रथम इतिहास तथा ऐतिहासिक तथ्यों एवं अन्य पुष्ट प्रमाणों के आधार पर रसखान की जन्म- भूमि पिहानी जिला हरदोई माना जाए। पिहानी और बिलग्राम ऐसे जगह हैं, जहाँ हिंदी के बड़े- बड़े एवं उत्तम कोटि के मुसलमान कवि पैदा हुए।

नाम एवं उपनाम

स्थान तथा जन्म काल की तरह रसखान के नाम एवं उपनाम के संबंध में भी अनेक मत प्रस्तुत किए गए हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपनी पुस्तक में रसखान के दो नाम लिखे हैं:-- सैय्यद इब्राहिम और सुजान रसखान। जबकि सुजान रसखान की एक रचना का नाम है। हालांकि रसखान का असली नाम सैयद इब्राहिम था और "खान' उसकी उपाधि थी।

नवलगढ़ के राजकुमार संग्रामसिंह जी द्वारा प्राप्त रसखान के चित्र पर नागरी लिपि के साथ- साथ फारसी लिपि में भी एक स्थान पर "रसखान' तथा दूसरे स्थान पर "रसखाँ' ही लिखा पाया गया है। उपर्युक्त सबूतों के आधार पर कहा जा सकता है कि रसखान ने अपना नाम "रसखान' सिर्फ इसलिए रखा था कि वह कविता में इसका प्रयोग कर सके। फारसी कवियों की नाम चसिप्त में रखने की परंपरा का पालन करते हुए रसखान ने भी अपने नाम खाने के पहले "रस' लगाकर स्वयं को रस से भरे खान या रसीले खान की धारणा के साथ काव्य- रचना की। उनके जीवन में रस की कमी न थी। पहले लौकिक रस का आस्वादन करते रहे, फिर अलौकिक रस में लीन होकर काव्य रचना करने लगे। एक स्थान पर उनके काव्य में "रसखाँ' शब्द का प्रयोग भी मिलता है।

नैन दलालनि चौहटें म मानिक पिय हाथ।
"रसखाँ' ढोल बजाई के बेचियों हिय जिय साथ।।

उपर्युक्त साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि उनका नाम सैय्यद इब्राहिम तथा उपनाम "रसखान' था।


बाल्यकाल तथा शिक्षा

रसखान एक जागीरदार पिता के पुत्र थे। इसलिए इनका लालन पालन बड़े लाड़- प्यार से हुआ माना जाता है। ऐसा इसलिए कहा जाता है कि उनके काव्य में किसी विशेष प्रकार की कटुता का सरासर अभाव पाया जाता है। एक संपन्न परिवार में पैदा होने के कारण उनकी शिक्षा अच्छी और उच्च कोटि की, की गई थी। उनकी यह विद्वत्ता उनके काव्य की साधिकार अभिव्यक्ति में जग जाहिर होते हैं। रसखान को फारसी हिंदी एवं संस्कृति का अच्छा ज्ञान था। फारसी में उन्होंने "श्रीमद्भागवत' का अनुवाद करके यह साबित कर दिया था। इसको देख कर इस बात का अभास होता है कि वह फारसी और हिंदी भाषाओं का अच्छा वक्ता होंगे।

रसखान ने अपना बाल्य जीवन अपार सुख- सुविधाओं में गुजारा होगा। उन्हें पढ़ने के लिए किसी मकतब में जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी होगी।


रसखान और उसकी काव्य का भाव एवं विषय=

सैय्यद इब्राहिम रसखान के काव्य के आधार भगवान श्रीकृष्ण हैं। रसखान ने उनकी ही लीलाओं का गान किया है। उनके पूरे काव्य- रचना में भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति की गई है। इससे भी आगे बढ़ते हुए रसखान ने सुफिज्म ( तसव्वुफ ) को भी भगवान श्रीकृष्ण के माध्यम से ही प्रकट किया है। इससे यह कहा जा सकता है कि वे सामाजिक एवं आपसी सौहार्द के कितने हिमायती थे। उनके द्वारा अपनाए गए काव्य विषयों को तीन खण्डों में बाँटा गया है --

-- कृष्ण- लीलाएँ
-- बाल- लीलाएँ
-- गोचरण लीलाएँ



कृष्ण- लीलाएँ

लीला का सामान्य अर्थ खेल है। कृष्ण- लीला से मुराद कृष्ण ( प्रभु ) का खेल। इसी खेल को सृष्टि माना जाता है। सृजन एवं ध्वंस को व्यापकता के आधार पर सृष्टि कहा जाता है। कृष्ण- लीला और आनंदवाद एक- दूसरे से संबंधित है, जिसने लीला को पहचान लिया है, उसने आनंद धाम को पहुँच कर हरि लीला के दर्शन कर लिए। रसखान चुँकि प्रेम के स्वच्छंद गायक थे। इन लीलाओं में उन्होंने प्रेम की अभिव्यक्ति भगवान श्री कृष्ण को आधार मानकर की है।

यह अलग बात है कि रसखान ने लीलाओं की व्याख्या दर्शन न हो, परंतु उन्होंने इसको अपना कर आज तक भारतीय समाज को एक बेशकीमती तोहफा दिया है। कृष्ण की अनेक लीलाओं के दर्शन रसखान ने अपने काव्य में कराये हैं। इन लीलाओं में कई स्थानों पर अध्यात्मिक झलक भी पायी जाती है। रसखान की काव्य रचना में बाललीला, गौरचरण- लीला, कुँजलीला, रासलीला, पनघटलीला, दानलीला, वनलीला, गौरस लीला आदि लीलाओं के दर्शन होते हैं। सुरदास ने जिस भक्ति भावनाओं से हरि लीला का गान किया है, रसखान के काव्य में उसका अभाव है।


बाल- लीलाएँ

रसखान ने कृष्ण के बाल- लीला संबंधी कुछ पदों की रचना की है, किंतु उनके पद कृष्ण के भक्त जनों के कंठहार बने हुए हैं। अधिकतर कृष्ण भक्त इन पदों को प्रायः गाया करते हैं --

काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सौं ले गयो माखन रोटी।

कृष्ण के मानवीय स्वरुप ने रसखान को अधिक प्रभावित किया, लेकिन रसखान ने अपने पदों में उनके ब्रह्मत्व को खास स्थान दिया है।

इस बाल- लीलाओं में रसखान ने कृष्ण को एक शिशु के रुप में दिखाया है। उनके लिए छौने शब्द का प्रयोग किया गया है --

आगु गई हुति भोर ही हों रसखानि,
रई बहि नंद के भौनंहि।
बाको जियों जुगल लाख करोर जसोमति,
को सुख जात कहमों नहिं।

तेल लगाई लगाई के अजन भौहिं बनाई
बनाई डिठौनहिं।
डालि हमेलिन हार निहारत बारात ज्यों,
चुचकारत छोनहिं।

दूसरे पदों में रसखान ने श्रीकृष्ण को खेलते हुए सुंदर बालक के रुप में चित्रित किया है --

धूरि भरे अति शोभित श्यामजू तैसी,
बनी सिरसुंदर चोटी।
खलत खात फिरे अंगना पग पैजनी,
बाजति पीरी कछोटी।

वा छवि को रसखान विलोकत वरात,
काम कलानिधि कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सौं,
ले गयो माखन रोटी।

रसखान के बाल- लीला के संबंध रखने वाले पद बहुत ही सुंदर एवं भावपूर्ण हैं। कृष्ण धूल में भी आंगन में खेलते- खाते हुए फिर रहे हैं। घूंघरु बज रहे हें। हाथ में माखन रोटी है। कौआ आकर कृष्ण जी के हाथ से रोटी लेकर उड़ जाता है। काग की यह आम आदत है कि वह बच्चों के हाथों से कुछ छीन कर भाग जाता है। इस दृश्य को रसखान ने हृदयस्पर्शी बना दिया है।


गोचरण- लीलाएँ

कृष्ण- जी जब बड़ें होते हैं, वह ग्वालों के साथ गायें चराने वन जाने लगते है। कृष्ण जी की गोचरण की तमाम अदाओं पर गोपियाँ दिवानी होने लगती है। कृष्ण जी धीर सभी कालिंदी के तीर खड़े हो गउएँ चरा रहे हैं। गाएँ घेरने के बहाने गोपियों से आकर अड़ जाते हैं --

गाई दहाई न या पे कहूँ, नकहूँ यह मेरी गरी,
निकस्थौ है।
धीर समीर कालिंदी के तीर टूखरयो रहे आजु,
ही डीठि परयो है।

जा रसखानि विलोकत ही सरसा ढरि रांग सो,
आग दरयो है।
गाइन घेरत हेरत सो पंट फेरत टेरत,
आनी अरयो है।

कृष्णा वंशी बजाते गाय चराते हुए कुंजों में डोलते हैं। गोपियाँ कृष्ण के गोचरण- रुप में प्राण देने को तैयार है। जिस दिन से कृष्ण ने गायें चराई हैं, उसी दिन से गोपियों पर टोना सा हो गया है। केवल गोपियाँ ही नहीं, संपूर्ण ब्रज कृष्ण के हाथ बिक गया है।

रसखान ने कृष्ण की गोचरण लीला को मनोहर चित्रांत्मक ढ़ंग से दर्शाया है। अंत पटल पर एक के बाद एक दृश्य को काफी सुंदर तरीके से चित्रित किया गया है।


चीर- हरण लीला

एक समै जमुना- जल में सब मज्जन हेत,
धंसी ब्रज- गोरी।
त्यौं रसखानि गयौ मन मोहन लेकर चीर,
कदंब की छोरी।
न्हाई जबै निकसीं बनिता चहुँ ओर चित,
रोष करो री।
हार हियें भरि भखन सौ पट दीने लाला,
वचनामृत बोरी।

रसखान ने चीरहरण लीला को बड़े ही नाटकीय ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। इसके लिए उन्होंने साधारण शब्दों का प्रयोग किया है। चीरहरण लीला अध्यात्म पक्ष में आत्मा का नग्न होकर माया के आवरणीय सांसारिक संस्कारों से पृथक होकर प्रभु से मिलना है। इसमें संपूर्ण की संपूर्णता है, जिसमें अपना कुछ नहीं रहता, सबकुछ प्रभु का हो जाता है। जमुना में नहाती हुई गोपियों की दशा का वर्णन करते हुए रसखान कहते हैं कि गोपियाँ नहाने जाती हैं और कृष्ण उनके वस्र लेकर कदंब के पेड़ पर चढ़ जाते हैं। नहाने के पश्चात् गोपियाँ चारों ओर अपने वस्र ढूँढ़ती है और क्रोध करती हैं। वे थक- हार कर मीठे बोलकर कृष्ण से अपने वस्र माँगती है ।


कुँजलीला

वृंदावन की कुँजी में गोपियों का कृष्ण के साथ विहार काफी प्रसिद्ध रहा है। कुँजलीला का चित्रण रसखान रमणीयता के साथ किया है। वे लिखते हैं कि गोपियों को रास्ते में कृष्ण जी घेर लेते हैं। कृष्ण जी के रुप अच्छे होने के कारण बेचारी गोपियाँ घिर जाती है। कृष्ण जी कुँज से रंगीली मुस्कान के साथ बाहर होते हैं, उनका यह रुप देखकर गोपियों का घर से संबंध समाप्त हो जाता है, इन्हें आरज- लाज, बड़ाई का भी ध्यान नहीं रहता है --

रंग भरयौ मुसकात लला निकस्यौ कल कुंजन ते सुखदाई
टूटि गयो घर को सब बंधन छूटि गौ आरज- लाज- बड़ाई


रास- लीला

श्री कृष्ण जी की लीलाओं में रसलीला का आध्यात्मिक महत्व है। रासलीला मानसिक भावना के साथ- साथ लौकिक धरातल पर अनुकरणात्मक होकर दृश्य- लीला का रुप धारण कर लेती है। अतः इसके प्रभाव की परिधि अन्य लीलाओं की अपेक्षा अधिक व्यापक हो जाती है। "रास' शब्द का संसर्ग रहस्य शब्द से भी है, जो एकांत आनंद का सूचक है। रासलीला के स्वरुप का विचार प्राचीन काल से ही होता आया है। लीला के समस्त रुप भगवान की ही प्रतिपादन करते हैं। भागवत पुराण में रासलीला का विस्तार से विवेचन मिलता है।

रसखान ने रासलीला का वर्णन कई पदों में किया है। इनका रास वर्णन परंपरागत रास वर्णन से एकदम भिन्न है। रसखान के रास- लीला पदों में राधा को वह महत्व नहीं मिलता हे, जो वैष्णव कवियों ने अपने पदों में राधा को महत्व दिया है। रसखान ने अपने पदों में मुरली को भी वह प्रतिष्ठा नहीं दिया है, जो सूरदास और दूसरे कवियों ने दिया हे।

लै लै नाम सबनिकौ टेरे, मुरली- धुनि सब ही के ने रें।

हालांकि सूरदास की गोपियों के समान रसखान की गोपियाँ भी ध्वनि सुनकर बेचैन हो जाती हैं और यह अनुभव करती है कि कृष्ण उन्हें मुरली के माध्यम से बुला रहे हैं --

अधर लगाइ रस प्याइ बाँसुरी बजाई
मेरो नाम गाइ हाइ जादू कियो मन में।
नटखट नवल सुघर नंदनंदन ने,
करि के अचैत चेत हरि कै जतन में।

झटपट उलट पुलट पर परिधान,
जान लागीं लालन पै सबै बाम बन में।
रस रास सरस रंगीलो रसखानि आनि,
जानि जोर गुगुति बिलास कियौ जन में।

रास की सूचना मिलते ही गोपियाँ विवश हो जाती हैं। उन्हें मार्ग की कोई बाधा रोक नहीं पाती है। ये तो शीत की चिंता भी नहीं करती हैं और चल देती हैं --

कीगै कहा जुपै लोग चवाब सदा करिबो करि हैं
बृज मारो।
सीत न रोकत राखत कागु सुगावत ताहिरी
गाँव हारो।

आवरी सीरी करै अंतियां रसखान धनै धन
भाग हमारौ।
आवत हे फिरि आज बन्यो वह राति के रास को
नायन हारौ।

गोपियाँ एक- दूसरे से कह रही हैं कि वंशीवट के तट पर कृष्ण ने रास रचाया है। कोई भी सुंदर भाव उनसे नहीं बच सका। गोपियों ने कुल मर्यादा बनाये रखने का प्रण किया था, किंतु वे रास रचाये जाने की सूचना पाकर उसे देखे बिना नहीं रह सकी और अपने प्रण से विचलित हो गयीं --

आज भटू मुरली बट के तट के नंद के साँवरे रास रच्योरी।
नैननि सैननि बैननि सो नहिं कोऊ मनोहर भाव बच्योरी।
जद्यपि राखन कों कुलकानि सबैं ब्रजबालन प्रान पच्योरी।
तथापि वा रसखानि के हाथ बिकानि कों अंत लच्यो पै लच्योरी।


सूरदास

संग ब्रजनारि हरि रास कीन्हों।
सबन की आस पूरन करी श्याम जै त्रियनि पियहेत सुख मानि लीन्हो।
भेंटि कुलकानि मर्यादा- विधि वेद की त्यगि गृह नेह सुनि बेन घाई।
कबी जै जै करो मनहिं सब जै करी रांक काहू न करो आप भाई।

रसखान और अन्य वैष्णव कवियों की रास वर्णन में भिन्नता व्याप्त है। रसखान की गोपियों को भी कुलमर्यादा का ध्यान रहता है, फिर भी वह सब रास- स्थल पर पहुँच जाती हैं। रसखान की गोपियों में केवल कृष्ण- रास की विविध क्रीड़ाओं के दर्शन होते दिखाई देते हें।


पनघट लीला=

पनघट लीला संबंधी रसखान के केवल तीन ही पद पाए जाते हैं। जमुना पर जल लेने जा रहीं गोपियों को रास्ते में घेर कर, कृष्ण उमंग में भर आलिंगन करते हुए बहाने से मुख चूम लेते हैं। गोपियाँ लोक लाज को बचाने के लिए परेशान हो जाती है, उनके हृदय में कृष्ण सांवरी मूर्ति घर कर गई थी।

ब्रज बालाओं को जमुना में नहाने जाना हो, तो वे कृष्ण के डर से ठिठकती हुई जाती है। अचानक कृष्ण जी भी गाते बजाते वहाँ पहुँच जाते हैं। कामदेव गोपियों की बुद्धि का नाश कर देता है। चकोर की भॉति परिणाम का विचार न करती हुई ये स्नेह दिवानी होकर गिर पड़ती हैं :-

आई सबै ब्रज गोपालजी ठिठकी ह्मवै गली
जमुना जल नहाने।
ओचक आइ मिले रसखानि बजावत बेनू
सुनावत ताने।
हा हा करी सिसको सिगरी मति मैन हरी
हियरा हुलसाने।
घूमैं दिवानी अमानी चकोर सौं और दोऊ
चलै दग बाने।


दानलीला

रसखान ने दानलीला से संबंधित दोहे बड़ी ही सुंदरता से कहे हैं :-

दानी नए भए माँबन दान सुनै गुपै कंस तो बांधे नगैहो
रोकत हीं बन में रसखानि पसारत हाथ महा दुख पैहो।
टूटें धरा बछरदिक गोधन जोधन हे सु सबै पुनि दहो।
जेहै जो भूषण काहू तिया कौ तो मोल छला के लाला न विकेहो।

कृष्ण राधा को रास्ते में छेड़ते हैं और दही तथा माखन दान में माँगते हैं। राधा को कृष्ण धमकाते हैं, किंतु राधा पर उसका तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता है। राधा के ताने और बातें सुनकर कृष्ण थक जाते हैं, किंतु राधा अपनी जगह पर अटल रहती हैं और कृष्ण को बुरा- भला सुनाती हैं:--

नो लख गाय सुनी हम नंद के तापर दूध दही न अघाने।
माँगत भीख फिरौ बन ही बन झूठि ही बातन के मन मान।
और की नारिज के मुख जोवत लाज गहो कछू होइ सयाने।
जाहु भले जु भले घर जाहु चले बस जाहु बिंद्रावन जानो।

रसखान का दान लीला साहित्यिक दृष्टि से उच्च कोटि का है। उनके दान लीला की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें राधा और कृष्ण के संवाद को नाट्कीय, स्वाभाविक और सरल अंदाज से पेश किया गया है।

राधा और कृष्ण की वन में भेंट :-

एक दिन राधा, कृष्ण को वन में मिलती है। रसखान को दोनों के मिलने में तीनों लोकों की सुषमा के दर्शन होते हैं :-

लाडली लाल लर्तृ लखिसै अलि पुन्जनि कुन्जनी में छवि गाढ़ी।
उपजी ज्यौं बिजुरी सो जुरी चहुँ गूजरी केलिकलासम काढ़ी।
त्यौं रसखानि न जानि परै सुखमा तिहुँ लोकन की अति बाढ़ी।
बालन लाल लिये बिहरें, छहरें बर मोर पखी सिर ठाढ़ी।

अंत में रसखान राधा- कृष्ण का विवाह करा देते हैं। रसखान यहाँ वही सब करते हैं, जो एक कृष्ण भक्त को करना चाहिए। उनके इस स्वरुप को देखकर ब्रजवासी भी सुख का अनुभव करते हैं :-

मोर के चंदन मोर बन्यौ दिन दूलह हे अली नंद को नंद।
श्री कृषयानुसुता दुलही दिन जोरी बनी विधवा सुखकंदन।
आवै कहयो न कुछु रसखानि री दोऊ फंदे छवि प्रेम के फंदन।
जाहि बिलोकैं सबै सुख पावत ये ब्रज जीवन हैं दुख ढ़٠??न।


होली- वर्णन

कृष्ण भक्त कवियों की तरह रसखान ने भी कृष्ण जी की उल्लासमयी लीलाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। उन्होंने अपने पदों में कृष्ण को गोपियों के साथ होली खेलते हुए दिखाया गया है, जिनमें कृष्ण गोपियों को किंभगो देते हैं। गोपियाँ फाल्गुन के साथ कृष्ण के अवगुणों की चर्चा करते हुए कहती हैं कि कृष्ण ने होली खेल कर हम में काम- वासना जागृत कर दी हैं। पिचकारी तथा घमार से हमें किंभगो दिया है। इस तरह हमारा हार भी टूट गया है। रसखान अपने पद में कृष्ण को मर्यादा- हीन चित्रित किया है :-

आवत लाल गुलाल लिए मग सुने मिली इक नार नवीनी।
त्यों रसखानि जगाइ हिये यटू मोज कियो मन माहि अधीनी।
सारी फटी सुकुमारी हटी, अंगिया दरकी सरकी रंग भीनी।
लाल गुलाल लगाइ के अंक रिझाइ बिदा करि दीनी।

वृषभान के गेह दिवारी के द्योस अहीर अहीरिनि भरे भई।
जित ही तितही धुनि गोधन की सब ही ब्रज ह्मवै रह्यो राग भई।
रसखान तबै हरि राधिका यों कुछ सेननि ही रस बेल बई।
उहि अंजन आँखिनि आॅज्यों भटू उन कुंकुम आड़ लिलार दई।


हरि शंकरी

रसखान हरि और शंकर को अभिन्न मानते थे :--

इक और किरीट बसे दुसरी दिसि लागन के गन गाजत री।
मुरली मधुरी धुनि अधिक ओठ पे अधिक नाद से बाजत री।
रसखानि पितंबर एक कंधा पर वघंबर राजत री।
कोड देखड संगम ले बुड़की निकस याह भेख सों छाजत री।


शिव- स्तुति

रसखान के पदों में कृष्ण के अलावा कई और देवताओं का जिक्र मिलता है। शिव की सहज कृपालुता की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि उनकी कृपा दृष्टि संपूर्ण दुखों का नाश करने वाली है --

यह देखि धतूरे के पात चबात औ गात सों धूलि लगावत है।
चहुँ ओर जटा अंटकै लटके फनि सों कफनी पहरावत हैं।
रसखानि गेई चितवैं चित दे तिनके दुखदुंद भाजावत हैं।
गजखाल कपाल की माल विसाल सोगाल बजावत आवत है।


गंगा- गरिमा

गंगा की महिमा के वर्णन की परिपाटी का अनुसरण करते हुए रसखान ने भी गंगा की स्तूति में एक पद ही सही, मगर लिखा है --

बेद की औषद खाइ कछु न करै बहु संजम री सुनि मोसें।
तो जलापान कियौ रसखानि सजीवन जानि लियो रस तेर्तृ।
एरी सुघामई भागीरथी नित पथ्य अपथ्य बने तोहिं पोसे।
आक धतूरो चाबत फिरे विष खात फिरै सिव तेऐ भरोसें।


प्रेम तथा भक्ति

प्रेम तथा भक्ति के क्षेत्र में भी रसखान ने प्रेम का विषद् और व्यापक चित्रण किया है। राधा और कृष्ण प्रेम- वाटिका के मासी मासिन हैं। प्रेम का मार्ग कमल तंतू के समान नागुक और अतिधार के समान कठिन है। अत्यंत सीधा भी है और टेढ़ा भी है। बिना प्रेमानुभूति के आनंद का अनुभव नहीं होता। बिना प्रेम का बीज हृदय में नहीं उपजता है। ज्ञान, कर्म, उपासना सब अहंकार के मूल हैं। बिना प्रेम के दृढ़ निश्चय नहीं होता। रसखान द्वारा प्रतिपादित प्रेम आदर्शों से अनुप्रेरित है।

रसखान ने प्रेम का स्पष्ट रुप में चित्रण किया है। प्रेम की परिभाषा, पहचान, प्रेम का प्रभाव, प्रेम प्रति के साधन एवं प्रेम की पराकाष्ठा प्रेम वाटिका में दिखाई पड़ती है। रसखान द्वारा प्रतिपादित प्रेम लौकिक प्रेम से बहुत ऊँचा है। रसखान ने ५२ दोहों में प्रेम का जो स्वरुप प्रस्तुत किया है, वह पूर्णतया मौलिक हैं।

अन्य वणाç के अंतर्गत रसखान ने फुटकर पद्य लिखें हैं। प्रायः भक्त कवि- युगम जोड़ी पर पद्य लिखते रहे हैं। रसखान ने भी इस परंपरा को अपनाया है।


भक्ति

ईश्वर के प्रति अनुराग को भक्ति कहते हैं। रसखान एक भक्त कवि हैं। उनका काव्य भक्ति भाव से भरपूर है।

वा लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँपुर को तजि डारौ।
आठहु सिद्धि नवाँ निधि को सुख नंद की गाइ चराई बिसरौ।
ए रसखानि गवै इन नैनन ते ब्ज के बन- बाग निहारै।
कोटिका यह कलघोत के धाम करील की कुंजन उपावारौ।

यहाँ स्थायी भाव देव विषयक रति अपने पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान है --

कंचन मंदिर ऊँचे बनाई के
मानिक लाइ सदा झलकेयत।
प्रात ही ते सगरी नगरी।
नाग- मोतिन ही की तुलानि तलेयत।

जद्यपि दीन प्रजान प्रजापति की
प्रभुता मधवा ललचेयत।
ऐसी भए तो कहा रसखानि जो
सँवारे गवार सों नेह न लेयत।

रसखान की प्रेम वाटिका में निर्वेद --

प्रेम अगम अनुपम अमित सागर सरिस बखान।
जो आवत यहि ढिग बहुरि जात नाहिं रसखान।
आनंद- अनुभव होत नहिं बिना प्रेम जग जान।
के वह विषयानंद के ब्राह्मानंद बखान।

ज्ञान कर्म रु उपासना सब अहमिति को मूल।
दृढ़ निश्चय नहिं होत बिन किये प्रेम अनुकूल।
काम क्रोध मद मोह भय लोभ द्रोह मात्सर्य।
इन सब ही ते प्रेम हे परे कहत मुनिवर्य।