रागिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

हौले बोलो दीवारें सुनती हैं

जिंदगी की साँस सरगम
के स्वर उखड़े नहीं
नक्कार खाने में
जो तूती बोलती है
कुम्हलाने लगते हैं फूल
जीवन के सहज सुंदर
प्रात: जो तोड़े गये
देवता के शीश पर जाने
चढ़ेगे कब
या मिलेंगे खाक में
यह कौन जाने!

जिन्दगी के रूप की रानी
झील सी आँखों की
चाहता हूँ अंक में बाँधू
गहराई में आँखे डालता हूँ
वह मछलियों-सी छिटक कर
झील के जल के अटल में
बैठती है
….बांसुरी के छिद्र में फंस
रागिनी है गा रही
कह रही है
स्वप्प्न था वह
स्वप्न का संसार
होता बहुत सुंदर
पर स्वप्न के बिरवे
को मिट्टी में जमाने
के लिये
बाहों में पौरुष और
मन कामना तो चाहिये

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