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रात / नज़ीर अकबराबादी

खींच कर उस माह रू को आज यां लाई है रात।
यह खु़दा ने मुद्दतों में हमको दिखलाई है रात॥
चांदनी है रात है खि़ल्वत है सहने बाग़ है।
जाम भर साक़ी कि यह क़िस्मत से हाथ आई है रात॥
बे हिजाब और बे तकल्लुफ़ होके मिलने के लिए।
वह तो ठहराते थे दिन पर हमने ठहराई है रात॥
जब मैं कहता हूं ”किसी शब को तू काफ़िर यां भी आ“।
हंस के कहता है ”मियां हां वह भी बनवाई है रात“॥
क्या मज़ा हो हाथ में जुल्फे़ हों और यूं पूछिये।
ऐ! मेरी जां! सच कहो तो कितनी अब आई है रात॥
जब नशे को लहर में बाल उस परी के खुल गए।
सुबह तक फिर तो चमन में क्या ही लहराई है रात॥
दौर में हुस्ने बयां के हमने देखा बारहा।
रूख़ से घबराया है दिन, जुल्फ़ों से घबराई है रात॥
है शबे वस्ल आज तो दिल भर के सोवेगा ”नज़ीर“।
उसने यह कितने दिनों में ऐश की पाई है रात॥

शब्दार्थ
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