रात की शक्लें, दिनों की सूरतों से
आजकल बिल्कुल जुदा हैं।
आइए दो-चार हों उन मूरतों से
मान बैठीं जो खु़दा हैं।
आज अपने आपसे हमको शिकायत,
आशियाँ अपना लगे जैसे विलायत;
हैसियत पूछो न अपनी
बूँदभी हम नहीं, केवल बुदबुदा हैं।
चाँद-सूरज इन दिनों खंडित-विभाजित,
श्वेत काला सभी कुछ कृष्णाय अर्पित;
धर्म की ईमान की खबरें न आईं
मुद्दतों से गुमशुदा हैं।
धूल से अर्जित करे है स्वर्ण-चाँदी,
रात-भर में राजरानी हुई बाँदी;
आज दिन मातम मनाने को विवश हैं
और रातें ग़मजदा हैं।