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रात भर बारिश / लाल्टू

तीसरे चौथे पहर टिप-टिप सुनता हूँ
झिर-झिर आती है नम हवा
मेढक झींगुर के झीं-झीं टर्र-टर्र के साथ
चादर में काँपता हुआ ध्वनियों को समेटता हूँ

सिकुड़ते बदन के साथ बदलते सपनों के रंग
बैंगनी-सा होता है सपने में अतीत
सुनता हूँ शंख
उलूध्वनि घबराहट माँओं की

यह सपना नहीं जब रात भर पानी छतों से चूता
बाप जगा खपरैल या पालीथीन की छत सँभालता
माँ अपने बदन से ढकती बच्चे को
घुप्प काला है पहर गहराता
यह सोचकर फिर पलकें मूंदता हूँ
कि बसंती उम्मीद भी है हल्की-सी कि
देर से जाएंगे लोग काम पर सुबह
हालाँकि बहुत दिक्कत होगी औरत को
मर्द के लिए चाय बनाने में सुबह सुबह।