रामप्रेम की प्रधानता
( छंद 115 से 116 तक)
(115)
कनककुधरू केदारू, बीजु सुंदर सुरमति बर।
सींचि कामधुक धेनु सुधामय पय बिसुद्धतर।।
तीरथपति अंकुरसरूप जच्छेस रच्छ तेहि।
मरकतमय साखा-सुपुत्र, मंजरिय लच्छि जेहि।।
कैवल्य सकल फल, कल्पतरू, सुभ सुभाव सब सुख बरिस।।
कह तुलसिदास ,रघुबंसमनि, तौ कि होइ तुअ कर सरिस।।
(116)
जाय सो सुभटु समर्थ पाइ रन रारि न मंडै।
जाय सो जती कहाय बिषय-बासना न छंड़ै।
जाय धनिकु बिनु दान, जाय निर्धन बिनु धर्महि।
जाय सो पंडित पढ़ि पुरान जो रत न सुकर्महि।
सुत जाय मातु-पितु-भक्ति बिनु, तिय सो जाय जेहि पति न हित।
सब जाय दासु तुलसी कहै, जौं न रामपद नेहु नित।।