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रामगुणगान / तुलसीदास/ पृष्ठ 6


रामभक्ति की याचना

 ( छंद 121 से 123 तक)

(121)

भयो न तिकाल तिहूँ लोक तुलसी-सो मंद,
 निंदै सब साधु, सुनि मानौं न सकोचु हौं।

 जानत न जोगु हियँ हानि मानैं जानकीसु,
 काहेको परेखो, पापी प्रपंची पोचु हौं।।

पेट भरिबेके काज महाराजको कहायों ,
महाराजहूँ कह्यो है प्रनत-बिमोचु हौं।

 निज अघजाल , कलिकालकी करालता,
 बिलोकि होत ब्याकुल, करत सोई सोचु हौं।।

(122)

धर्म कें सेतु जगमंगलके हेतु भूमि-
भारू हरिबेको अवतारू लियो नरको।

नीति औ प्रतीति -प्रीतिपाल चालि प्रभु मानु,
 लोक -बेद राखिबेको पनु रघुबरको।।

 बानर-बिभीषनकी ओर के कनावड़े हैं ,
 सो प्रसंगु सुने ं अंगु जरै अनुचरको।

राखे रीति आपनी जो होइ सोई कीजै,
 बलि, तुलसी तिहारो घर जायऊ है घरको।।

(123)

नाम महाराज के निबाह नीको कीजे उर ,
सबही सोहात , मैं न लोगनि सोहात हौं ।

कीजै राम! बार यहि मेरी ओर चष-कोर,
 ताहि लगि रंक ज्यों सनेह को ललात हौं।

तुलसी बिलोकि कलिकालकी करालता,
कृपालको सुभाउ समुझत सकुचात हौं।

लोक एक भाँति को, त्रिलोकनाथ लोकबस,
आपनो न सोचु , स्वामी -सोचहीं सुखात हौं।।