लहरी मन्द-मन्द पुरवाई
दूर किसी किन्नरी-परी ने रूनुन-झुनुन पायल झनकाई
उज्जवल, कज्जल, श्यामल-श्यामल
उमड़े मेघों के शत-शत दल
मंत्र-मुग्ध-सा लगा थिरकने
सजल, सजग जग का अंतस्तल
कण-कण में रम गयी मधुरिमा
धरती-तल हो उठा विचंचल
छिपा सान्द्र घन के टुकड़ों में
गीत-नीले नभ का उत्पल
रूठी इन्द्रप्रिया की आकुल आँखों ने बूँदें टपकाईं
रानी का दुख देख मेघ छौनों की भी आँखें भर आईं
लहरी मन्द-मन्द पुरवाई
गहरी इस रस की धारा में
लहरी कवि-भावों की नइया
कुंज-कुंज में झूम-झमक-झुक
डोल उठी चंचल पुरवइया
घिर आए कवि के मन में घन
सावन-सा मेरे कवि का मन
सातों रंग घुले जीवन में-
इन्द्र-धनुष सा उन्मन-उन्मन
मादकता से भरी मुरलिका कवि ने धीमे फूँक बजायी
कवि की काव्य-प्रिया ने भी हँस आहिस्ते से कजली गायी
लहरी मन्द-मन्द पुरवाई
गूँज उठी मेघों की भाषा
‘शैली’ कौंध उठी अम्बर में
हलचल-सी मच गयी अचानक
पावस के इस पुण्य-प्रहर में
उमड़-घुमड़ कर मेघ आ रहे-
और छा रहे गिरि-शिखरों पर
दौड़ी एक लहर-सी पल में
सागर के घर में, सरवर में
प्रकृति-प्रिया ने तंद्रा तज निज अलमस्ती से ली अँगड़ाई
और किसी सुनसान कक्ष में दूर किसी को झपकी आई
लहरी मन्द-मन्द पुरवाई
थिरक उठी वीणा के तारों पर-
गायक की चपल उँगलियाँ
फूटा कंठ कोकिला का-सा
झूम उठीं मधु कुसुमावलियाँ
सुन, सहमी रह गयीं उर्वशी-सी-
कोमल-चंचल बालायें
पिरो रहीं थी जो कुंजो में-
मधु-मंजरियों की मालायें
वीणा-झनकी-‘‘जलें बूँदियाँ जिनने जी में आग लगायी
जले अमावस, पिघले पावस जिनने ‘पी’ की याद दिलायी
लहरी मन्द-मन्द पुरवाई