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रूठ के हमसे कहीं जब चले जाओगे तुम / मजरूह सुल्तानपुरी

रूठके हमसे कहीं जब चले जाओगे तुम
ये ना सोचा था कभी इतने याद आओगे तुम

मैं तो ना चला था दो कदम भी तुम बिन
फिर भी मेरा बचपन यही समझा हर दिन
(छोड़कर मुझे भला अब कहां जाओगे तुम) २
ये ना सोचा था ...

बातों कभी हाथों से भी मारा है तुम्हें
सदा यही कहके ही पुकारा है तुम्हें
(क्या कर लोगे मेरा जो बिगड़ जाओगे तुम) २
ये ना सोचा था ...

देखो मेरे आंसू यही करते है पुकार
हो आओ चले आओ मेरे भाई मेरे यार
(पोंछने आंसू मेरे क्या नहीं आओगे तुम) २
ये ना सोचा था ...