Last modified on 8 मई 2011, at 22:39

लकड़हारा / नरेश अग्रवाल

उसका अपना बोझ कम था,
लकडि़य़ों का ज्यादा
जिन्हें सिर पर उठाये चल रहा था वह
सारा काम उसका निश्चित
लकड़ी काटने से लेकर
बेचकर वापस घर लौटने तक
यहाँ तक कि कमाई भी निश्चित,
एक ही दशा में जी रहा था वह
पूरी जिन्दगी भर
एक ही काम करते हुए
जैसे कोई नदी गुजरती है
अपने सीमाबद्ध रास्तों से ।