एक
काव्य सृजन
कंसीव्ह हुआ
कोख में पला
बन विकसित हुआ
नियत समय बाद
तेज़ हुई
प्रसव वेदना
जन्म हुआ
कविता का
दो
सामने पहाड़ का टुकड़ा
जैसे गोवर्धन पर्वत
होगी जब अतिवृष्टि
नाराज़ होने पर इन्द्र के
उठा लेंगे कृ़ष्ण इसे
एक उँगली पर
शरण पाएँगे समस्त मरुवासी
इसके तले
इस मरुभूमि पर
ऐसा भी होगा कभी
बहुत रोमाँचक है यह कल्पना
तीन
न क़लम हिली
न अमलतास
न बादल हटे
न सूरज उदास
हवा चली
घूमने लगा
एक्झॉस्ट फैन
कुछ हिले पत्ते
कुछ हिली डालियाँ
गाने बजे
गज़लें चलीं
सड़क पर
आवारा गायें चलीं
बुझी-बुझी निगाहें चलीं
चार
दूर-दूर तक
रँग हुए बेरँग
अच्छे न रहे
बिजली भी है
टेलीफ़ोन भी
मोटर भी, गाड़ी भी
अनजान रस्ता
अनजान डेरा
दूर है मँज़िल
पाँच
अफ़सोस भी है
आक्रोश भी
असफलता भी है
असमर्थता भी
जो भी है
नीले आसमान पर
बादलों का
पैच वर्क है
छह
यही नर्क है
निर्मल बहती कोई
सरिता नहीं है
ये ज़िन्दगी एक जँग है
कविता नहीं है
हायब्रीड
खिले हैं गुलाब
बड़े-बड़े
सुर्ख़ लाल
फिरोज़ी
हल्के नीले
सुगन्ध नहीं इनमें
जैसे भावनाविहीन
सुन्दर शरीर