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लड़कियाँ / अनिल गंगल

लोग उन्हें समझते रहे लड़कियाँ
जबकि वे थार में दमकती मरीचिका थीं
दरअसल वे फूल थीं
और फूल भी कहाँ
उन्हें फूल समझना भी ख़ुद को धोखे में रखना था
दरअसल वे पँखुरियाँ थीं बिखरी हुई
वनस्पतिशास्त्रियों के विश्लेषण का शिकार बनतीं
फिर पँखुरियाँ भी होतीं तो ग़नीमत थी
वे तो पत्तियाँ थीं हरियाती हुई
क्लोरोफिल, धूप और पानी से भोजन बनाती हुई
पत्तियों का जन्म अकारथ था
वे तो खिलखिलाते रंग होना चाहती थीं
झिलमिलाना चाहती थीं वे
उल्लासमय प्रसन्न रंगों में खिलते
एक रंग से दूसरे रंग के तिलिस्म में ग़ायब होते हुए
दरअसल सारा कुछ आँखों का धोखा था
लड़कियाँ खुद भी तो एक धोखा थीं।

१४ अक्टूबर २०००