और संकरी हो गई है प्रेम की गली,
गली के दोनों तरफ़ तरह-तरह की चमकती दुकानें सौदागरों ने जमा ली हैं
जो प्रेम के अलग-अलग पैकेज पेश करते हैं
इन गलियों में इत्र सूंघते, बाल संवारते, शीशों में अपना चुपड़ा हुआ चेहरा देखते
और प्रेम के नाम पर तरह-तरह की अश्लील कल्पनाओं से भरे शोहदे जब पाते हैं कि
उनकी बहनें भी सहमी-सकुचाई, दुकानों के कानफाड़ू शोर से बचती हुई
आंखें नीची किए, किन्हीं लड़कों के साथ गुज़र रही हैं
तो उनके भीतर का भाई और मर्द जाग जाता है- अपनी कुंठित कल्पनाओं के प्रतिशोध में
वै वैसी ही कुंठित नैतिकता की शरण में चले जाते हैं,
उनके हाथों में लाठियां, साइकिल की चेन, बेल्ट, बंदूकें कुछ भी हो सकती हैं
और वे घर की आबरू बचाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।
ज़्यादा वक़्त नहीं लगता- अगले दिन प्रेम किसी पेड़ से लटका मिलता है,
किसी तालाब में डूबा मिलता है,
किसी सड़क पर क्षत-विक्षत पड़ा मिलता है।
घर की दीवारें राहत की सांस लेती हैं-
ग़मगीन पिता क्रुद्ध-उदास भाइयों की पीठ थपथपाते हैं
कलपती हुई मां मन ही मन करमजली को कोसती है
बस अकेली छोटी बहन अपने कातर प्रतिरोध के बीच सहमी हुई
छटपटाती हुई तय करती है- बचाए रखेगी वह अपना प्रेम
किसी को पता नहीं लगने देगी और एक दिन निकल जाएगी चुपचाप,
शीश देने को तैयार उद्धत प्रेम बचा ही रहता है।