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लाइक / विनोद विट्ठल

पवैलियन में बैठा दूर का चश्मा घर भूल आया कोच
देखता है रनआउट को जैसे

फेड और धूसर हो चुके उजाड़ कुलधरा के पीले पत्थरों को
पढ़ती है रोमिला थापर जैसे

डबल बस की ऊपरी मँज़िल से मिड-डे में छपी तस्वीर को देख
ख़ुश होती है एक्स्ट्रा कलाकार नन्दिता सिंह जैसे

मैं तुम्हें देखता हूँ — लाइक !

तुम अस्पष्ट होते हो अनुत्तरित प्रेमपत्र की तरह
गूढ़ होते हो जैसे अधपकी मुस्कान
विरल होते हो एक रुपए के नोट या पुरानी चवन्नी की तरह

उपस्थिति से भी पूरा समझना मुश्किल होता है
जैसे तीसरे के उठावणे में सफ़ेद कपड़ों में आई भीड़ की शोकग्रस्तता को

कभी लगता है तुम वैसे ही हो
कि खाना बहुत अच्छा बना है कहने के बाद भी
डिनर पर आया जोड़ा कुल जमा तीन के बाद
न चौथी रोटी लेता है, न ही सब्ज़ी दाल

बहुत गर्मजोशी वाला आमन्त्रण भी तुम नहीं होते हो
जैसे हाथ मिलने या ताली ठोककर बात करने वाली कोई लड़की

कितना भीषण है यह कि एक पार्टी कह रही है :
ग्रेट नेशन टु लिव — लाइक करो
गान्धी गड़बड़ था — लाइक करो
अमरीका सही है — लाइक करो
मन्दिर वहीं बनाएँगे — लाइक करो
देश देते हैं आधा अम्बानी को — लाइक करो
आधा अडानी को — लाइक करो
आधा सुदर्शन को — लाइक करो
आधा शाह को — लाइक करो

दिखते हुए भी
कभी तुम होते हो
कभी नहीं होते हो
कभी औपचारिकता में उगे
कभी बेरुख़ी से टँगे
कभी दिखावे भर के लिए
कभी बहस से बचते हुए
कभी व्यावहारिक टिप्पणी
कभी चलताऊ थपकी
तो कभी सचमुच की पसन्द, पहली नज़र जैसे

इस लायक़ तो हो ही तुम — लाइक
कि लिखी जा सके तुम पर कविता
और कमाए जा सकें कुछ लाइक !