हम लिखते रहे उनके लिए
जो नहीं थे इसके लिए तैयार
भीतर की आग से
पकाया और
बाँटते रहे उनमें
जो नहीं थे भूखे
नहीं पहुँचा उन तक कोई स्वर
न शब्द
फिर भी लिखते रहे
बाँटते रहे
और धीरे-धीरे
भीतर-ही-भीतर कहीं
लौटते रहे अपनी ओर
बदलता रहा
लिखने,बाटने का यह दस्तूर
और हो गये एक दिन हम
अपने सामने खड़े
सवाल किया हमसे
हमारी आत्मा ने :
किसके लिए तुम इतनी आत्मीयता से लड़े
उत्तर हमारे होठों पर आ बैठा अचानक
जालीदार खिड़कियाँ,रोशनदान, झरोखे
जाग रहे हैं
चौकन्ने
टालते हुए अँधेरे की मौत
क्योंकि डर है
सूरज के लौटते ही
न हो जाये आईना पारदर्शी