Last modified on 1 मार्च 2009, at 12:51

वक्त. / रेखा


कभी-कभी
वक्त ऐसी बेढब चाल चलता है
मैं साथ नहीं चल पाती
और लँगड़ाने लगती हूँ

पथरीली पगडंडियों पर
थिरकने वाले गोरे पाँव
हो जाते हैट ज़ख्मी
इन काली
सपाट
बुहारी हुई सड़कों पर
चलने से
क्योंकि बिखरे रहते हैं
यहाँ
खरीदी हुई नज़ाकत के
कील

कभी-कभी
सुस्ताने लगती हूँ
वक्त के साथ
किसी रेस्तराँ में
बोतलों का रंगीन पानी देख
सूख़ने लगता है गला
अँजुलि बाँधती हूँ
पाती हूँ सिर्फ़
पसीना

छलकती गागर के हमजोली
कलाई कटाव
नहीं सुनते
चूड़ियों की खनक
सुनते हैं
घड़ी की बौखलाई
टिक-टिक

बोतलों का रँगीन पानी
बुझाता नहीं
मेरी गँवार प्यास
बाट जोहता है बादलों की
पपीहा-मन
पिऊ-पिऊ रटता है
और बोतलों का तीखापन
चुभ-चुभ जाता है
प्यास में

रात को
पहरा देता है वक्त
मेरे दरवाज़े पर
झरता रहता है अँधेरा
वक्त की झिरियों से
और रात गुज़र जाती है
पाँव के चुभे कील चुनते
प्यास में चुभे
काँच बटोरते
सुबह
दस्तक देता है दरवाज़े पर
वक्त ठेलता मुझे
चलो
चलें
मैं लँगड़ाती-सी उठती हूँ
पर मुझसे पहले ही
अजनबी-सा
चला गया ह ऐ वक्त
मेरी पड़ोसिन के साथ

1982