वक्त कभी माटी का, वक्त कभी सोने का
पर न किसी हालत में यह अपना होने का ।
मिट्टी से बने महल, मिट्टी में मिले महल
खो गई खंडहरों में वैभव की चहल-पहल
बाजबहादुर राजा, रानी वह रूपमती
दोनों को अंक में समेट सो रही धरती
रटते हैं तोते इतिहास की छड़ी से डर
लेकिन यह सबक कभी याद नहीं होने का ।
सागर के तट बनते दम्भ के घरौंदे ये
ज्वार के थपेड़ों से टूट बिखर जाएंगे
टूटेगा नहीं मगर ये सिलसिला विचारों का
लहरों के गीत समय-शंख गुनगुनाएंगे
चलने पर संग चला सिर पर नभ का चंदा
थमने पर ठिठका है पाँव मिरगछौने का ।
बांध लिया शब्दों को मुट्ठी में दुनिया को
द्वार ही न मिला मुक्ति का जिसको मांगे से
सोने की ढाल और रत्न-जड़ी तलवारें
हारती रहीं कुम्हार के कर के धागे से
सीखा यों हमने फ़न सावन की बदली में
सावन के रंग और नूर को पिरोने का ।
बाजबहादुर-रूपमती=मांडू के राजा बाजबहादुर और रानी रूपमती की प्रसिद्ध प्रेमकथा की बात की गई है ।
कुम्हार के कर का धागा=कुम्हार चाक पर तैयार कच्चे बरतन को धागे से काटकर उतारता है ।
(रचनाकाल :27.10.1994)