जय हे, जय जय हे तारिणि, जन-कल्याणी
जय हे, आदिकल्पने, भगवती भवानी
माँगब नइँ हम आइ कोनो वरदान
अछि अपन शक्ति पर हमरा बड़ अभिमान
भिक्षाटनमे व्यय ने करब हम अप्पन वाणी
जय हे, जय जय हे तारिणि, जन-कल्याणी
तोहर मूर्ति अछि हमर कल्पना, हमर प्रतीक
तोहर पूजा-अर्चा अछि परम्परा के लीक
परम्परा केँ तोड़ब नइँ, हम छी संस्कृति अभिमानी
जय हे, जय जय हे तारिणि, जन-कल्याणी
कय तोहर वन्दना लीखि रहल छी शब्द-अल्पना
हम शक्ति उपासक, तोँ शक्तिक आदि-कल्पना
शक्ति पबइ छी तोहर भक्तिसँ हम, हे पाषाणी
जय हे, जय जय हे तारिणि, जन-कल्याणी
(‘वन्दना’ सँ ‘विसर्जन’ धरिक एकतीसटा कविता ‘स्वरगंधा’ में संगृहीत अछि। ‘स्वरगंधा’क इनर पेज कभर पर पुस्तकक नामक ठीक ऊपरमे लिखल अछि: ‘मैथिली कविता मे नवीन शिल्प-शैलीक स्थापना’। ई संग्रह ‘प्रतिपदा’ आ ‘चित्रांक कविताकेँ श्रद्धापूर्वक, मायाकान्त आ द्विजेन्द्र केँ आस्थापूर्वक, लालदाइ केँ स्नेहपूर्वक समर्पित अछि। एहि संग्रहक सभटा कविता कलकत्ता प्रवासकाल (नवम्बर 1957 सँ अप्रील 1958) मे लिखल गेल अछि। एकर प्रकाशन मइ, 1958 मे भेल।) --मोहन भारद्वाज