प्रकृति देवी जिसकी पावन गोद में पलती
झरने झरने, धाराएं, तरंगें उछलतीं
होते हैं जहां कुसुमित कुसुम, मुकुलित कमियां
मंडराते हैं षट्पद रंग बिरंगी तितलियां ।
तमचुर के बांकते प्रातःकालीन छटाएं,
निखर आतीं, महक उठतीं चारों दिशाएं
सन सन कर बहने लगता सुनासित पवन
जाग उठता धरा का अलसाई कण कण ।
शाम होती न्यारी,बिखरी रहती किरण-लाली
रात होती सुहानी, छिटकती ज्योत्स्ना निराली
प्रकृति की शोभा में लग जाते चार चांद
विंमडित होती धरा पहन स्वर्णिम परिधान ।
यह है वही दिग-दिगन्त विस्तीर्ण वसुन्धरा
युग युग से ज्यों का त्यों खड़ी वसुन्धरा
सच्ची जननी है, जड़-चेतन का सहारा
जिसके वात्सल्य, उदारता का मिला न किनारा ।
पहाड़ों को धारण कर झंझावतों का सहनकर
दुख-सितम सहकर, कांटों का भी मुकुट पहनकर
करती वह सबसे शुचि प्यार , सब का उपकार
बनती सब को, बसाती सब को बांटकर दुलार ।
खिदते, बिंधते लोग सदा उसका हृत
सहती वह सब कुछ पर होती न कभी कुपित
सदैव शान्त, सदैव कोमल उसकी रीत
देकर उमदा फसलें बढ़ाती सबसे प्रीत ।
जो दे सब कुछ और ले कुछ भी नहीं
क्या है कोई और ऐसी देवी कहीं ?
क्यों न पूजें हम इस देवी को जो अन्न
देती, धन देती और देती मधुरिम जीवन ।