Last modified on 22 दिसम्बर 2011, at 22:19

वह आदमी / रमेश रंजक

जी हाँ,
वह आदमी इसी गाँव में रहता है
जो छप्पर उठवाने से
छप्पर तुड़वाने में
ज़्यादा दिलचस्पी लेता है ।

जी हाँ,
वह आदमी बहुत फ़ितना है
जिसकी उधार की दवा
एक बूढ़े बदन से
एक जवान जिस्म बाँधने में माहिर है ।

जी हाँ,
वह आदमी इसी गाँव में रहता है
उसके चार ज्वारे की खेती होती है
उसकी ईख
सारे गाँव मेम सबसे ऊँची और घनी होती है
और जब किसी की
इक्कीस ईख में आग लग जाती है
सारे गाँव की ज़ुबान पर
वही जुमला होता है—
'साँई बाबा' ठीक ही कहते हैं
उसे देवी मैय्या का वरदान है,
उसे धन-धान्य में
कोई हरा नहीं पाएगा ।

लोग कहते हैं—
उस पर एक कोप भी है
जिसे वह ख़ुद स्वीकार करता है—
जब कभी उसकी घोड़ी और बन्दूक
किसी न्यौतिहार में जाती है
तभी कहीं आस-पास से डाका पड़ने की ख़बर आती है
इसलिए गए साल से उसने
न्यौतिहारी में आना-जाना छोड़ दिया है ।

उसकी चौपाल
जवान आदमियों से घिरी रहती है
और यह बात सबको मालूम है
कि 'बलचनमा' का ख़ून
उसी के आदमियों ने किया था
और 'कटोरी' के साथ दिन-दहाड़े...

छोड़िए साब !
थानेदार उसका मौसेरा भाई है
वह जब कभी गाँव में आता है—
जवान लड़कियों का घर से निकला,
मर्दों का मिल-जुलकर बैठना,
सब बंद हो जाता है
बाबूजी !
उस आदमी की वज़ह से
गाँव में अब,
अलाव नहीं जलते,
तवेदार हुक्के नहीं चलते,
झूले नहीं पड़ते,
घरेलूपन मर गया है,
हर किसी से मिलना-जुलना
ज़हर हो गया है ।

बाबू जी !
नींद तो पत्थरों पर भी आ जाती है
लेकिन उस आदमी ने
एक चौड़ी खाट पर सोने के लिए
बड़ा आतंक फैला रखा है ।

हाँ,
गाँव के पल्ले मौल्ले में
सुलगती आग !
जब लाठियों में उतर आएगी...
...उसकी बन्दूक की हक़ूमत
                        धरी रह जाएगी ।