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वह पुरुष / पंकज सुबीर

वह पुरुष अक्सर मेरे शरीर से बाहर निकल आता है ,
बाहर आते ही सबसे पहले टटोलता है मुझे
इस तरह ,जैसे मैं जीता जागता इंसान न होकर
कोई टकसाल में ढला सिक्का हँ
जिसे टटोलकर वो परखकर रहा है
मेरे खरे या खोटे होने की ,
याकि मैं ब्रेल लिपी में लिखा हुआ
कोई रंगीन दस्तावेज हँ
जिसे टटोलकर वो अपनी अंधेरी कल्पनाओं में
छोटी छोटी चिंदियाँ लगा रहा है रंगों की
या फिर मैं हँ किसी स्त्री की देह
जिसे टटोलना खोलना और फिर उस पर
आवारा कुत्तों की तरह मुंह मारना
बरसों से रहा है पुरुषों का
समय काटने का सबसे पसंदीदा शगल,
हैरत है कि मैं इन सबमें से कुछ भी नहीं हूँ
फिर भी वो टटोलता है मुझको ,
टटोले जाने को लेकर नहीं है आपत्ती मुझे
मैं तो बस इसलिये व्यथित हँ
कि टटोलने वाला भी एक पुरुष ही है ,
मेरे ही अंदर से निकाला हुआ पुरुष
फिर अचानक ही बंद कर देता है वो टटोलना ,
ये वे कुछ क्षण होते हैं
उसके बाहर निकल कर आने के बाद
जब में महसूस करता हँ राहत ,
यह जानते हुए भी कि जब तक वो
मेरे आस पास मौजूद है तब तक
राहत महसूस करना व्यर्थ की बात है
कुछ क्षणों तक रुका रहता है वह पुरुष
फिर अचानक टूट पड़ता है मुझ पर
इस बार वो टटोलता नहीं है मुझे
इस बार फाड़ने लगता है
उन कपड़ो को जो मेरे शरीर पर होते हैं ,
वो फाड़ने लगता है मेरे कपड़ों को
जैसे मैं रंगीन काग़ज़ो में लिपटा कोई उपहार हूँ
जिसके रंगीन काग़ज़ों को फाड़ते ही
अंदर से निकल आएगा वो अनदेखा
अनचीन्हा और अनछुआ सा आश्चर्य!
याकि मैं विमोचन के लिए रखी हुई
किसी लेखक की पहली पुस्तक हूं
जिसके सुनहरे चोले के अंदर छुपी है
कुण्ठाओं की काली स्याही से खींची गई
कुछ अक्षरी पहेलियाँ
और अक्सर जिनकी मौत हो जाती है
विमोचन के कुछ घंटों बाद ही ,
वो फाड़ता ही जाता है उन कपड़ों को
जब तक की उन कपड़ो को सद्गति
प्राप्त नहीं हो जाती
और बाहर का वातावरण मेरे शरीर के
प्रत्येक अंग का प्रत्यक्षदर्शी नहीं हो जाता
मेरा एक ठीक ठाक सा विमोचन
जब तक संपूर्णता नहीं पा जाता
इस अनावरण के पश्चात
अक्सर मैं गौर से देखता हँ
अपने उस शरीर को
उन अंगों को भी ,
जिनका मैंने उपयोग तो किया
लेकिन आज तक इस तरह ,
कभी सूरज की तेज़ रोशनी में नहीं देखा
और बचाकर रखा जिनको हमेशा
धूप हवा और पानी से ,
फिर रुक जाता है वो पुरुष
मैं नहीं जानता
क्या महसूस करता है वो उस समय ?
लेकिन मैं उन क्षणों में महसूस करता हँ
अपने आप को उस तेल चीकट और मेल से सने
बदबूदार तकिये की तरह
जिस पर चढ़ी साफ और सफेद खोल
अभी अभी उतार कर फेंक दी गई हो ,
सार्वजनिक रूप से नंगा हो जाना
सचमुच कितना दहशत भरा होता है
और शयद तभी हमें एहसास भी होता है
अपनी उन चौड़ी हथेलियों की वास्तविकता का
कि कितनी छोटी हैं ये
कि हम ठीक ठाक रूप से
कुछ भी तो नहीं ढंक सकते हैं इन हथेलियों से
एक चेहरे को छोड़ कर ,
जिसे हम अक्सर इस स्थिती में ढांक लेते हैं
ताकि वो नंगापन बेनाम हो जाए
कोई नहीं जान पाए कि ये अंधेरा सा नंगापन
जब कपड़ों के पीछे होता है
तो किस नाम से जाना जाता है ?
इसी तरह खड़े रहते हैं हम दोनों ,
लेकिन इस बार राहत महसूस नहीं करता मैं
कोई भी नहीं महसूस कर सकता
उन परिस्थितियों में ,
ये वे क्षण होते हैं जब हमारे बीच
अर्थात मेरे और उस पुरुष के बीच
कुछ चुप्पियां पसरी रहती हैं
जो असफल प्रयास करतीं हैं
हमारे बीच संवाद स्थापित करने का ,
एक बार फिर वो पुरुष टूट पड़ता है मुझ पर
उसके नाखून तेज़ ओर नुकीले हो जाते हैं
नोंच नोंच कर फैंकना शुरु कर देता है वह मुझे
कि जैसे मैं रूई से भरा हुआ
गदबदा सा कोई खिलोना हँ
जिसे किसी नामालूम से क्रोध के कारण
फाड़ देता है कोई बच्चा ,
और उस के अंदर भरी हुई रूई को
नोंच नोंच कर फैंकना शुरू कर देता है ,
और उसे भी बच्चे का
एक उग्र खेल ही माना जाता है ,
एसे ही नोंच नोंच कर फैंकता वह भी मुझे
उन नोंचे हुए टुकड़ों को उछाल देता है हवा में
हवा में उछाले गए टुकड़े
बदलने लगते है दृष्यों में ,
किसी दृष्य में नज़र आती है
अपने ही किसी मित्र की पत्नी को
कभी अकेला पाकर उसके साथ
शारिरिक सुख भोगने की कुण्ठित इच्छा
तो किसी दृष्य में नज़र आतें हैं वे सांप
जो अक्सर मेरी छाती पर तब लौटते हैं
जब मैं देखता हँ
किसी व्यक्ति को सुखी संतुष्ट और समृध्द
मुझसे नोंच कर फ़ैंका गया कोई टुकड़ा
बदल जाता है किसी एसे दृष्य में
जिसमें मैं पाता हँ स्वयम् को शमिल
उन्मादी लोगों की उस भीड़ में
जो हाथों में औज़ार लिये गिरा रही है
विवादित सा कोई ढांचा ,
किसी दृष्य में हाथों में मशाल लिए
मैं जला रहा होता हँ उस आदमी का मकान
जो दुर्भाग्य से मेरे धर्म का नहीं है
उस दृष्य में जलते हुए मकान की खिड़की से
झांकते हैं कुछ मासूम बच्चे
झुलसे हुए हाथों को खिड़की से
बाहर निकाले हुए
मैं पहचानने का प्रयास करता हँ उनको
कि अचानक दृष्य में मौजूद मैं
फ़ैंक देता हँ पैट्रोल उस खिड़की पर
और फ़िर जलता हुआ दृष्य नीचे गिर जाता है,
एसे ही न जाने कितने दृष्य बनते हैं
उन टुकड़ों से
जिन्हें मुझसे नोंच कर फेकता है ,वह पुरूष
वह नोंचता ही जाता है
तब तक ,जब तक मुझ में कुछ भी शेष नहीं रहता
यह दूसरे प्रकार का नंगापन होता है
जो मुझे अंदर से भी नंगा कर देता है
मेरे चारो तरफ बिखरे होते हैं
मेरे कपड़े और वे सभी दृष्य
मेरे नंगेपन के सबूत के रूप में
वह पुरूष उन कपड़ों और दृष्यों को समेटता है
और न जाने किस भाषा में कुछ बोलता है ,
मैं याद करने का प्रयास करता हूँ
कि कहाँ सुनी है मैने यह भाषा ?
पर याद नहीं कर पाता हँ
ना ही समझ पाता हूँ उस भाषा को
उन चीज़ों को दिखा दिखा कर
कोई भाषण सा देता है वह मुझको,
तब तक मैं अपने आपको यकीन दिला देता हूँ
कि यह भाषा तो मुझे आती ही नहीं है
और हटा देता हँ ध्यान उस के भाषण से
वह पुरूष बोलना बंद करता है
और आशा भरी नज़रों से देखता है मेरी तरफ
मुझे नहीं सूझता क्या करूं ?
और मैं अपना सिर स्वीकारोक्ति में हिला देता हूँ
मेरे हाँ करते ही वह खुश हो जाता है
उन दृष्यों टुकड़ों और कपड़ों को हाथों में लेकर
वापस समा जाता मुझमें
और अपने दोनों नंगेपन
अपने ही अंदर समेटे हुए
वापस लौट आता हँ मैं भी ,
यकीन मानिए
मेरे साथ ऐसा अक्सर होता है।