प्रिय सुधाकर
तुम नहीं रहे
लेकिन तुम अन्तर्व्याप्त हो इस बस्ती में
बाज़ार के कोलाहल से अलग
एक बस्ती बसानी चाही थी तुमने
जिसमें वाणी का पावन स्वर गूँजता रहे
तुम घूम घूम कर बुलाते रहे वाणी-पुत्रों को
बस्ती बसी और वाणी-विहार हो गई
लेकिन यह क्या?
वाणी-पुत्र धीरे-धीरे छोड़ते गये विहार को
और उनकी जगह आते गये हाट-पुत्र
पीठ पर बाज़ार लादे हुए
धीरे-धीरे ‘वाणी विहार’
‘वणिक विहर’ बनता चला गया
अब तो घर भी
दुकान की भाषा में बोलने लगे हैं
प्रिय सुधाकर
क्या विडम्बना है कि
तुम्हारा घर भी बेच दिया गया
बाज़ार के हाथ
अब न आँगन रहा
न उसमें झूमते पेड़-पौधों की हँसी
न चिड़ियों की चहक
न वहाँ तैरता ऋतुओं का संगीत
अब वहाँ किताबों के पन्नों की नहीं
रंग-बिरंगे कपड़ों की सरसराहट है
अब वहाँ कवियों के
मानवीय भाव-स्वरों की
लहरियाँ नहीं गूँजतीं
अब तो वहाँ
लेन-देन वाली बाज़ारू बोलियों की
बजबजाहट है।
-24.9.2013