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विद्रोह / शर्मिष्ठा पाण्डेय

हर गली हर कूचे में बरस रहे पत्थर शपा
कब तलक बचते रहें सर ज़ख़्मी होना चाहिए

इल्म की रौशनी ने चौंधिया दी आँखें बहुत
कुछ तो अब अँधेरा स्याह वहम का होना चाहिए

सिर्फ गुनहगारों को क्यूँ मासूमों को भी हो सजा
ताजिराते-हिन्द में नयी दफा होना चाहिए

पाँव रखने को ज़मीं का ज़र्रा क्यूँ दे दोस्तों
आसमानों का भी रौंदा सीना होना चाहिए

दुश्मनों को मारते कब तक रहेंगे चुन के हम
कुछ तो संगीनों का रुख अपनों पे होना चाहिए

मिलकियत है बाप की किसके हमारा ये वतन
कोई झंडा हक़ का हिमालय पे होना चाहिए

फूल को रंगीनियों को खुशबू को अब बख्श दे
कुछ कसीदे काँटों की भी शान होना चाहिए

कितना और भरेंगे पेट, खिलाके मेवे मछलियाँ
आँतों में कुछ भूख की भी तड़प होना चाहिए

खुला छोड़ के कर दिया शेरों को आदमखोर जो
कुछ तो पिंजरे शहर में इन्सां का होना चाहिए

सर झुकाते ही झुकाते गर्दनों में बल पड़े
पट्टा बेफिक्री का सीना तान होना चाहिए